सुनैना

24/07/2013 18:49

1978, 15 मई दिन सोमवार को मेरे पड़ोस से एक बारात निकली, जो मेरे मामा जी के दूर के रिश्ते में गईं थी I शादी धूमधाम से हुई लड़की की विदाई बारात के साथ हो गईI रिस्ते से दुल्हन मेरी मौसी है और उनका नाम सुनैना है, पिता का नाम नन्हकू राम था, दो छोटे भाई हैं। तीन दूल्हा बने रामलाल को हम चाचा कहते हैंI शादी के बाद मेरे दुलहे चाचा अपनी दुल्हन को लेकर सीधा कलकत्ता चले गए, कलकत्ता मे उनका पिता जी को दहेज़ में मिला हुआ 12 कमरो का हॉउसिगं काम्प्लेक्स था I जिसमे से 10 कमरे किराये पे दिये हुए थे, रामलाल जी की मोहल्ले मे अपनी एक धाक थी, सब उंन्हे सेठ कहा करते थे I कहे भी क्युँ ना, उनदिनों 40/- के महीने से 400 /- रुपये महीने के किराय मिलते थे I एरिया के रसूखदारों में गिने जाने वाले रामलाल अपने आप को सेठ कहलाने से फुले नहीं समाते I

मौसी से चाची बनी सुनैना देहाती समाजीक परिवेश में पली बढ़ि और कम पढ़ी लिखी शुशील औरत है I उन्हें कलकत्ता का नाम जितना सुहाना लगा करता था, उतना वहाँ जाकर अच्छा नहीं लगा I घर में भाग दौड़ वाली जिन्दगी और गाँव देहात से हटकर शहरी जीवनचर्या उटपटांग सा लगा I फिर भी सुनैना अपना धर्म नहीं भुली, सास-ससुर की सेवा और पत्नी धर्म में उसने कोई कोताही नहीं बरता I शुध शाकाहारी रहते हुए सुनैना परिवार में मांसाहारियों के साथ जीना स्वीकार किया I उनके जूठे बर्तन माँजती, उनके कपड़े धोती और हमेशा शुध रहते हुए नित्य पूजा-पाठ भी किया करती I हिंदी फिल्मो के सुरिलो गाने सुनैना को अच्छे तो लगते पर उन गानो पर हर इतवार को या कोई पर्व त्यौहार के उन्ही फिल्मी लोगो के कपड़ो में हिलते-हिलाते औरत और मर्द को एकसाथ नाचते देख बड़ा अचम्भा सा लगता I सुनैना अपने ही घर में उन औरत मर्द को एक साथ अपने माँ-बाप, बड़े-बूढ़े बच्चो के साथ या सामने नाचना, नाचने के साथ शराब पीकर कूदना देख बड़ा ही अजीब सा लगता I

रामलाल अपनी बाड़ी के एक कमरे में सुनैना के साथ रहा करते थे, और एक कमरा उन्होंने शादी से पहले अपने माँ-बाप के लिए खाली करवा गए थे I किराएदार सब के सब बांगली थे, उनके घरो में पकने वाले माँस, मछली सुनैना के लिए असहाय सा हो जाता I अरे देख सब नाच रहे है तू क्यु शर्मा रही है? रामलाल के इतना कहने पर तो सुनैना मारे शर्म के जमीन में गड़ जाती, घर के किसी कोने में जा कर छुप जाया करतीI रामलाल बस अपना मुँह बिचका कर रह जाते I रामलाल की चाहत थी की मेरी पत्नी भी सब लोगो की तरह रहे, वो भी सब की तरह बन सवंर कर चले I उनके रसूख के हिसाब से पत्नी भी किसी से कम न लगे, हर मामलो में सबकी पत्नियों पर भारी पड़े I परन्तु सुनैना तो सादे लिबास में रहना पसंद कराती थी I सिंगार तो अपनी जरुरतो पर ही करती थी I रामलाल सुनैना को इस बारे मे काफी कुछ समझा बुझा चुके थे, उसका सादा लिबास सादा जीवन यापन अब और अच्छा नहीं लग रहा था I उन्हें अब सुनैना गवाँर लगने लगी थी, बातो ही बातो में सुनैना से चिढ़ने लगे, छोटी छोटी बातो का बड़तंग बनाने लगे I एक दिन तो नशे में सुनैना पर हाथ भी उठा दिया I

पति के इस व्यवहार से सुनैना को अपना घर बहुत याद आने लगा, एक दिन रात के खाने पर बैठे रामलाल से  मायके जाने का जिक्र किया तो, रामलाल सहर्ष मान गए मानो मन की मुराद मिल गई I रामलाल उसी रात सुनैना को अपने कपडे थैले में डाल लेने को कहा- और थाली में हाथ धोते हुए बोले – मैं सुबह ही तुम्हे ले चलुंगा तुम तैयार रहना I सुनैना को पति के इस व्यवहार और इतने जल्दी तैयार हो जाने की उम्मीद कतई नहीं थी I पर सच उसके सामने था, वो अपने पति और सास ससुर को छोड़कर जाना नहीं चाहती थी, उसने तो बस यु ही अपने पति के मन को टटोलना चाहा था I रामलाल रोज ही विस्तर पर नसे की बु के साथ अपने पति होने का हक जताते और एक ओर मुँह करके निढ़ाल पड जाते, सुनैना भी सारा दिन के काम की थकान से नींद की आगोश में चली जाती I

उस रात रामलाल सुनैना से कुछ बोले नहीं और एक तरफ मुँह करके सो गए I सुनैना के आँखों की नींद उससे दूर खड़ी सारी रात उसे चिढ़ाती रही, सुनैना एक टक से अपने पति को निहारती रही I कभी उठ कर बैठ जाती और सोचती शायद रामलाल अभी उठेंगे और उसे घर ना जाने की लीए कहेंगे, तो कभी सोचती मैं इन्हे जगाकर पूछूँ की मैं उन्हें पसंद क्यू नहीं हुँ ? काश मैं उन्हें अपने साथ ही ले जाती I लेकिन फिर रामलाल के बेरूखेपन के बारे में सोच सहम कर रह जाती, जब कभी रामलाल करवटे बदलते सुनैना धिरे से विस्तर पर लेट जाती और छत पर लटके पंखे के नाँचते परो को सिर से गिनने की कोशिश करने लग जाती I

सुनैना के इन्ही कोशिशो के साथ सुबह हो गई । चिड़ियों के चहचहाने के साथ ही सुनैना के दिल की धङकन बढ़ती चली गईI वो समझ गई थी की रामलाल उसे घर छोड़ने जरूर ले जाएगे, हुआ भी यहीI रामलाल के माता-पिता के लाख मना करने के बावजुद, 6 महीनो से अपने माँ-बाप से दूर हुए और उनकी याद आने का बहाना बना कर, सुनैना को जल्दी वापस लिवा लाने के वादे के साथ ही रामरामलाल ने थैला अपने हाथ में उठा लिया। सुनैना मारी मन के साथ अपने सास-ससुर के पैर छूने गई, उनकी बूढी आँखे सुनैना के नैंनो में झलकते उसके दिल के दर्द को देख चुके थे, लेकिन अपने एकलौते बेटे के जिद के आगे मजबूर थे I रामलाल सुनैना को उसके मायके छोड़कर उसी दिन वापस जाने को तैयार हो गए, सुनैना के माता-पिता के लाख कहने पर भी नहीं रुके, सुनैना उन्हें दरवाजे के ओट से निहारती रही और सोचती रही शायद रामलाल उसे एक बार पलट कर जरूर देखेंगे I

 रामलाल जब सुनैना के नजरो से ओझल हुए तब उसे एहसास हुआ, 12 घण्टो के सफर में तो बोले नहीं, पिछले 4 महीने में दो प्यार की बाते नहीं किया तो आज उन्हें क्या पड़ी है जो मुझे जाते-जाते देख जाएगे? रामलाल के इस व्यवहार से सुनैना का मन एक अनजानी अनहोनी के डर से बैठने लगाI सुनैना दरवाजे पर खडी-खड़ी अपना माथा झटका और खुद को समझती हुई मन को ढाँढ़स बांधने लगीI वो तो शहरी है मैं ठहरी गाँव की धीरे-धीरे जब उनको मेरी याद सताएगी तो वो एक दिन मुझे जरूर अपने पास लेजाएगे, और दरवाजे से हटकर अपने घर के अंदर चली गई, अपने बूढ़े माँ-बाप छोटे भाइयो की देख रेख और उनकी सेवा में उसका दिन कटने लगा I

रामलाल 12 घण्टे बाद अपने घर कलकत्ता पँहुच गय, घर में आराम कर रहे माँ बाप को बाहर से ही झांक कर देख लिया, और अपने बेड़े में रहने वाले एक परिवार घर के अन्दर चले गए I उस परिवार में दो युवक, एक 17-18 साल कि उनकी बहन अनीता और उनके माँ-बाप थे, उनका होटल का काम था I दिन भर भाई बहन माँ बाप मिल लोगो को खाना खिलाते रात में सब इक्कठे हो शराब कबाब का आनन्द लेते और सो जातेI उनकी दिनचर्या यही थी I अब तो रामलाल भी खुद को आजाद महसूस कर रहे थे I वो अक्सर बुलावे के बिना भी कम्पनी देने पँहुच जाया करते, मकान मालिक होने के नाते उनका आव-भगत भी ठीक-ठाक ही होताI कमी-कमार तो रामरामलाल भी उन्हें अपने आप को मकान मालिक होने का पूरा एहसास दिला देते, उन पाँचो व्यक्तियों का  पूरा का पूरा खर्च उठा लेतेI उठाते भी क्युँ न उन्हें अब पीने के साथ साथ खाना भी मसालेदार मिल जाया करता, उनके साथ उनके माँ बाप के लिए भी थाली सज जाया करतीI

ये सब घटनाये क्रमवार तरीके से धरती रही, रामलाल के दिन मजे में कटते रहेI उधर सुनैना रामलाल को लिखी चिठ्ठियों के जबाब का बेसब्री से इंतजार कर रही थी, उसका इंतजार दिन व दिन बढ़ता हि चला जा रहा था धीरे-धीरे हपता फिर महीना अब तो 6 महीने गुजर गए I सुनैना इन 6 महीनो में 12 चिठ्ठियाँ लिख चुकी थी, अब तक किसी का भी जवाब नहीं आया थाI अब उसका दिल बैठता ही चला जा रहा था, रामलाल के इस बेकद्री से सुनैना के माँ बाप भी परेशान होने लगे थे I सुनैना के बुजुर्ग पिता जी अपने गाँव से 45 की-मी दूर जाकर ट्रंक काल लगाने की कोशिश कर आय, उनकी कोशिश तो नकाम रही पैसे भी जाया गय उनको बुखार भी चढ़ गया I

सुनैना अपने पिता जी को काढ़े का गिलास दिया और उनके चादर ठीक कराती हुई बोली -पिता जी आप तो खा-मो-खा परेशान होने चले गय, जाते हुए बताया भी नहीं, इतनी दुपहरी में आप को मैं जाने नहीं देतीI मैं जानता हुँ बेटा तु मुझे नहीं जाने देती, पर तेरे चेहरे का रंग हमेशा उडा रहता हैं, मुझे तेरा दुःख देखा नहीं जाता बेटी….! सुनैना के पिता इतना ही बोल पाए थे की उन्हें खासी आ गई I सुनैना पिता जी के हाथ से काढ़े का गिलाश लेते हुए बोली- पिता जी दुःख कैसा ? मैं तो आप लोगो के बीच बहुत खुश हुँI हाँ बेटा तु खुश तो है ही - … खासते हुए सुनैना के पिता जी ने कहा… बेटी का दुःख उसके माँ-बाप ही समझ सकते है, बेटियाँ कभी भी माँ-बाप से अपना दुःख छुपा नहीं सकती I पता नहीं दामाद जी ने अभी तक तुम्हारी चिठ्ठियों का जवाब क्युँ नहीं दिया? कल मैं फिर जाऊँगा उनसे फोन पर बात करने के लिए…I और कुछ कहना चाहते ही थे की सुनैना ने बीच में ही उन्हें टोका -अब आप कही नहीं जाएगे, देख नहीं रहे है की एक ही दिन के धुप ने आपको बीमार कर दिया..! कहती हुई पिता जी का चादर ऊपर किया और खुद भी सोने चली गई I

रामलाल और अनीता की नजदीकियाँ बढ़ती ही जा रही थी, अनीता अब रामलाल के माँ- बाबु जी का ख्याल भी रखने लगी थी I अनिता रामलाल और उनके माता-पिता से इतना घुल-मिल गई की उनके घर में खाना बनाने  कपडे धोने के लिए अपने होटल पर जाना भी छोड़ देती I अनीता के कहने पर उसके माँ-बाप दोनों भाई मान जाते, अनीता रामलाल के घर का सारा काम निपटाकर जल्दी ही फारिग हो जाती, और रामलाल के साथ अपने घर में बैठे घण्टो गप्पे हाँकते रहते I कभी-कभार रामलाल के जोर देने पर अपने भाइयो के आने के समय का हिसाब लगा पिक्चर देखने भी चली जाती I एक दिन रामलाल अनीता के होटल पर गय वहाँ से चिकन पैक करवा लिया, रास्ते में शराब की दुकान से अध्धा भी लेते आए I अनीता घर पर ही थी, रामलाल उसके कमरे में गय चिकन खोला, और दो गिलाश पैक बना लिया I अपना पैक गटागट खली करते ही रामलाल अनीता का हाथ पकड़ कर बिठाते हुए उसके मुहँ से दूसरे गिलाश का पैक लगा दिया I एक दो बार अनीता ने मना तो किया पर रामलाल की तीसरी गुजारिश को टाल न सकी I

गिलाश खाली किया मुँह में चिकन का टुकड़ा डालते हुए बोली-अगर मेरे भाइयो को पता चला तो ? तो क्या हम पहली बार थोड़े पी रहे है ? रामलाल तपाक से बोले I अनीता रामलाल के आँखो में झाँकते हुए बोली - देखो रामु…….. (अनीता ने उस दिन पहली बार रामरामलाल जी से रामु कहा था) रामलाल दूसरा पैक डाल चुके थे, अनीता के मुँह से अपने सम्बोधन में रामु नाम सुनते ही गदगद हो उठे I रामलाल तो यही चाहते थे की अनीता उन्हें प्यार से कुछ कहती रहेI …… हम पहली बार तो नहीं पी रहे है लेकिन मैं एक जवान लड़की हुँ, वो भी तुम्हारे साथ इस कमरे में अकेली, और तो और हम दोनों ही शराब पी रहे थे है, कही मन बहक गया तो ? फिर क्या था रामलाल की तो मन की मुराद मिल गई फटाफट तीसरा, चौथा, पाँचवा पैक चढाने के बाद अनीता को अपनी बाँहो में भर लिया और चुम्बनो की बौधार कर दिया I अनीता इस अचानक हमले से नजाकत भरी अदाओ से रामलाल का विरोध करने लगी, लकिन उसका विरोध ज्यादा देर तक उसका साथ नहीं दे सका, आखिरकार उसने अपने आपको रामलाल के हवाले कर दिया I

अनीता खुले मिजाज की थी, परिवारिक संस्कारो के वजह से शराब पीना भी सीख चुकी थी पर उसे आज से पहले किसी मर्द ने हाथ नहीं लगाया था I वो अक्सर अपने सपने में खुबसुरत हीरो को देखा करती थी I रास्ते चलते किसी ऐरे-गौरो को तो वो तपाक से जवाब दे दिया करती, उसके माँ बाप एक दो लडको के साथ उसके विवाह के चर्चे भी चलाए थे पर वो इंकार कर चुकी थी I उसे तो इंतजार अपने सपनो के राजकुमार का था I

रामलाल उस पर हावी इसलिए हो गय क्युँ की वो उसके मालिक थे, अपने माँ बाप के इकलौते बेटे भी, 6 महीने पहले अपनी घरवाली को छोड़ चुके थे, अनीता के सपने साकार होते दिख रहे थे I रामलाल की हरकते अब और बढ़ती गई, हुआ वही जो रामलाल चाहते थे दोनों एक दूसरे में समा गय I उस कमरे का तूफान थमा तब अनीता ने रामलाल से पूछा- आपने अपनी घरवाली को घर क्युँ छोड़ दिया है ? रामलाल मुस्कुराते हुए बोले- इतने दिनों बाद ये सवाल क्युँ किया ? अनीता कुछ झेंप सी गई और कहने लगी- अगर मैंने ये सवाल पहले किया होता तो मेरे साथ जो कुछ आज हुआ वो पहले ही हो चुका होता I और उस दिन हम दोनों के बीच शराब का बहाना भी नहीं होता क्युँ ? हाथ मटकती हुई- ठीक कहा न ? रामलाल को कोई और बात नहीं सुझी दाँत निपोरते हुए अनीता को बाहो में जकड लिया I

रामलाल, अनीता अक्सर अकेले में मिलने का बहाना ढूंढ़ने लगे, जैसे ही मौका मिलता एक दूसरे के हो जाते I  के दोनों रिस्तो के बारे में रामलाल के माता पिता के पता चल गया I एक दिन दोपहर को जैसे ही रामलाल अनीता के घर से निकल कर अपने घर में दाखिल हुए, उनके पिता जी ने कड़े लब्जो में पुछा I तू क्या कर रहा है रामरामलाल ? सुनैना को उसके घर छोड़ आया और अब इस लड़की की जिंदगी क्युँ बर्बाद करने पर तुला है ? तुझे ये सब करते शर्म नहीं आती ? तू तो शादी सुदा है........I तो क्या हो गया मेरी शादी हो गई तो ? रामरामलाल ने अपने पिता को बीच में ही रोक दिया I मैं तो शादी करना ही नहीं चाहता या गाँव में, आप ने ही जबरजस्ती मेरी शादी करवाई है I मुझे सुनैना पसंद नहीं है I क्या….? रामलाल के पिता चौकते हुए बोले- तो क्या उसे तु कभी लाना नहीं चाहता है ? उसका क्या होगा ? उसकी जिंदगी तुने बर्बाद क्युँ कर दी ? एक साथ इतने सारे शवालो के जवाब के बावजुद रामलाल सिर्फ चुप खड़े रहे I

बोलता क्युँ नहीं है ? रामलाल के पिता ने एक बार और कड़कते आवाज़ में पुछा I अब ये क्या बोलेगा- रामलाल की माँ ने कहा- सुनैना की जिंदगी तो हमने बर्बाद कर दिया वो दूसरी शादी करेगी ? कौन करेगा उससे शादी ? ऐसा मत कर बेटा सुनैना बहुत अच्छी और अच्छे संस्कार वाली लड़की है, रामलाल की माँ का गला भर आया था वो गिड़गिड़ाती सी बोली I रामलाल पर कोई असर नहीं हुआ, वो कुछ कहे बिना ही घर से बाहर निकल गए I घर के बरामदे में खड़ी अनीता रामरामलाल के घर में हो रहे सारी बातो को चुप-चाप सुन रही थी I बाहर अनीता को खड़ी देख रामलाल फिर अपने घर के अंदर चले गय, कपड़े पहने, जुते डाले और अनीता को बेड़े से बाहर आने को इसारा करते गय I

रामलाल के माता पिता बेटे के इस फैसले से बैचेन हो गय थे, सुनैना को जब इस बात का पता चलेगा तो उसके दिल पर क्या गजरेगी ? यही सोच पति-पत्नी चिन्ताग्रस्त हो चुप चाप बैठे रहे। कर भी क्या सकते थे दुनियाँ के हर माँ बाप के तरह वो दोनों भी पुत्रमोह में पड़ गय थे।  

अनीता बाहर आई तो रामलाल ने कहा - कपड़े बदल कर आओ I क्यूँ…? अनीता ने दबे आवाज़ मे पुछा I तुम कपडे पहन कर तो आओ कहीं बाहर चलते है, मुझे तुम से बात करनी है - रामलाल अनीता को कुछ समझाने के लहजे में बोले I ठीक है अभी आती हुँ - कहती हुई अनीता अपने घर में दाखिल हुई जल्दी-जल्दी कपड़े बदले, आनन् फानन में बालो में कंधा घुमाया और रामलाल के साथ चल पड़ी I रामलाल ने एक रिक्सा रुकवाया दोनों सवार हुए ओर चल पड़े I रामलाल ने रिक्से वाले को एक जगह रुकने को कहा, अपनी जेब से 1 अठ्ठन्नी निकाला और रिक्से वाले को देकर दोनों रिक्से से उतरे एक ओर चल पड़े। अनीता के मन और दिमाग यही उधेड़-बुन में लगे रहे की, रामलाल आखिर बात क्या करना चाहते है? पुरे रास्ते कुछ बात तो किया ही नहीं।

आख़िरकार उसने रामलाल से पुछ लिया - क्या बात करनी है रामु ? इधर आओ बताता हूँ- कहते हुए रामलाल सामने एक छोटे से पार्क में बने चबुतरे पर अनीता को बैठने के लिए कहा। देखो अनीता मैं खुले मिजाज का इंसान हुँ- हाँ मैं जानती हुँ अनीता ने बीच में चुटकी ली। मुझे वैसा ही जीवन साथी चाहिए जो मेरे मन को समझ सके, मुझे हर सुख दे, मेरे हर बात को तहजीब दे, मेरे साथ हर तरह से खुल कर रहे, वो तो (सुनैना) ऐसे रहती है जैसे किसी अनजान आदमी के साथ रह रही है। हमेशा पूजा-पाठ में ही लगी रहती है दिन भी रात भी तो मेरे लिए समय वो कब निकालेगी ? कभी नहीं। हर पल माँ-बाप और भगवान ही उसका परिवार है, माँ-बाप के सामने इतना शर्माती रहती है मुझे देख कर, सिर्फ खाने के वक्त ही थोड़ा कुछ बोलती है, नहीं तो हमेशा दूर-दूर रहती है। रामलाल बिना रुके बड़बड़ाते चले जा रहे थे, अनीता उन्हें देखे जा रही थी उसके आँखों में चमक और होठो पर धीरे धीरे जहरीली मुस्कुराहट फैलती जा रही थी I

तो तुम्हे कैसी औरत चाहिए? अनीता ने रामलाल से पुछा- और अगर दूसरी औरत चाहिए भी तो उसका क्या होगा ? आपने उसके भी शरीर के साथ खेल लिया और मेरा भी चिर हरण कर लिया, अब तो आपको दूसरी नहीं तीसरी का इंतजार है- अनीता आखिरी शब्दों पर जरा जोर देते हुए बोली। रामलाल अनीता की बातो पर थोड़ा मुस्कुराय फिर बोले- मैं क्या जानता था की वो एकदम गवाँर है, और मैंने तुम्हारा चिर हरण नहीं किया अनीता, तुम हो ही इतनी अच्छी की मै अपने आप को रोक नहीं सका। तुम्हारे बाद मुझे किसी भी तीसरी और चौथी का कोई इंतजार नहीं है। मै सुनैना को छोड़ दुँगा और तुम्से विवाह करूँगा।

अनीता के दिल बल्लियाँ उछल्लने लगे, अनीता रामलाल के पैरो पर अपना सर रख लेट गई रामलाल उसके जुल्फों को सहलाते हुए पुछा- क्या तुम करोगी मुझसे शादी ? अनीता लेटे-लेटे ही रामलाल के गले में अपनी बाँहे डालती हुई बोली- ये भी पुछने वोली बात थोड़ी है मिस्टर, मैंने बीना शादी किय ही तुम्हे अपना सब कुछ दे दिया तो शादी किसी और से कैसे करुँगी? (अनीता अब रामलाल को आप के सम्बोधन के बदले तुम पर आ गई थी) देखो रामु अगर तुम सुनैना को भी साथ रखोगे तब भी मै तुम्हारा पीछा छोड़ने वोली नहीं हुँ। शादी तो तुमसे ही करुँगी ।नीता रामलाल के पैरो पर से उठती हुई बोली- चलो रामु अब घर चलते हैं बहुत देर हो गई, घर में बैठ कर बाते करेंगे। रामलाल उठे अनीता का हाथ उँगलियो के सहारे पकड़े चल पड़े घर की ओर। अनीता और रामलाल के सम्बंध और गहरे होते चले गय, वो दोनों एक दूसरे के बिना न जीने की कसमे खाने लगे, वक्त अपनी रफ़्तार से गुजरता रहा, धीरे-धीरे दो महीने बित गय।

एक शाम रामलाल के पिता को सुनैना की चिठ्ठी मिली थी, वो उसे पढ़ते हुए काफ़ी गमगीन हो गय थे, वो चिठ्ठी भी उन्हें रामलाल की गलतियों की वज़ह से मिल गई थी। वर्ना रामलाल ने डाकिए को शख्त रूप से मना कर रखा था। रामलाल के पिता दूसरे दिन सुनैना के उस चिठ्ठी के जवाब में एक चिठ्ठी लिखने की सोच ही रहे थे की अपने पड़ोसी और किरायदार अनीता के घर से शोर सराबे की आवाज़ सुनाई पड़ी, ऐसा लग रहा था कोई किसी को मार रहा है। उन्होंने उसके दरवाज़े तक जाकर देखना चाहा तो सच ही अनीता के दोनों भाई अनीता को मारे जा रहे थे, साथ ही कहे जा रहे थे- बता कहाँ मुहँ काला करके आई हैं? आज तूने नहीं बताया तो हम तेरी जान ले लेंगे। रामलाल के पिता सारा माजरा समझ गय और वहाँ से कुछ कहे बिना ही अपने कमरे में आ गय । अनीता जीतनी पिटती जा रही थी इनका दिल उतना ही बैठता जा रहा था, उन्हें अपने बेटे की कर गुजारी पर बेहद शर्मिन्दगी महसूस हो रही थी, वो चाहते थे की अनीता के भाईयो को सारा सच बता कर उसे पिटने से बचा ले। लेकिन ये सोच कर सहम जाते की वो उनके मकान मालिक है और उनका बेटा शादी-सुदा उपर से बेटा माँ-बाप सब घर पर ही रहते है तो ये सब कैसे हो गया ? 

बेड़े में रहने वाले औरते बच्चें बूढ़े धीरे-धीरे सब अनीता के कमरे के बाहर इक्ठ्ठा होने लगे थे। शोर-गुल और भी बढ़ता ही जा रहा था, आखिर कार अनीता को अपने पेट में पल रहे तीन महीने के बच्चें के बाप का नाम बताना ही पड़ा I अनीता अब और मार सहन नहीं कर सकती थी। उसने सबके सामने रामरामलाल का नाम ले दीया I फिर सब औरतो के मुँह पर एक साथ हाथ गया और सबने एक साथ चौकते हुए कहा था हाय राम। इसिलिए उसने अपनी औरत को छोड़ दीया है ? अब क्या होगा इस लड़की का कौन शादी……! अरे चुप एक दूसरी औरत ने उसे चुप कराती हुई बोल पड़ी- तु शादी की बात कर रही है इसे तो डुब के मरना पड़ेगा या फिर रामरामलाल के साथ ही शादी करनी पड़ेगी, तीन महीने के बच्चें को पेट में लेकर कोई शादी करता है ? क्या कहा है रामरामलाल ?

रामलाल बाज़ार मछली लाने गए थे, 15 मिनट के इंतजार के बाद रामलाल का अपने घर में आगमन हुआ। अनीता के घर के बाहर भीड़ देखकर रामलाल चौके लेकिन कुछ कहते, बोलते, या फिर किसी से कुछ पुछते उससे पहले ही एक-एक करके सब औरतो ने उनको घेर लिया। अनीता के दोनों भाई अपने घर से निकले और रामलाल के करीब आते ही पुछ बैठे- बताओ हमारी बहन का अब क्या होगा? दूसरे भाई ने कहा- होगा क्या इनको अनीता से कल ही शादी करनी पड़ेगी वर्ना अंजाम बहुत बुरा होगा I रामलाल को सारा माजरा आईने सा साफ़ नज़र आने लगा अब उन्हें कल ही शादी करनी पड़ेगी वो चाहते भी थे I

रामलाल के माता पिता की नजरे उठ ही नहीं रही थी बेटे की करतूत से शर्मसार थे, मकान मालिक का रुतबा, इज़्ज़त दोनों दांव पर लगती दिख रही थी । प्रवासी होने के कारण इनका पलड़ा हल्का पड़ता नज़र आ रहा था। रामलाल सुबह होते ही तैयार हो इंतजार में लग गय की शादी कितनी जल्दी हो जाय, ये शादी अब उनकी उनकी इज्जत की शाख बचाने की ही नहीं मज़बूरी भी थी। उन दोनों के दिलो में एक दूसरे के लिए उमड़ते प्यार के लहरो से ज्यादा अब अपनी-अपनी जान बचाने की थी, वर्ना सचमुच कुछ भी हो सकता था, ये दोनों बखुबी जानते थे। आनन-फानन में दोनों की कोर्ट में शादी हुई । रामलाल के पिता जी को ना चाहते हुए भी उस शादी में जाना पड़ा सिर्फ इसलिए की रामलाल उनका बेटा है।

कोर्ट में लिखा पढ़ी के दौरान उन्हें सुनैना के घर की याद आ गई, कितनी इज्जत मिली थी उन्हें उस शादी में, लड़के का बाप होने का कितना सम्मान मिला था उन्हें जिंदगी में, कोई भी मिलता दिल खोलकर और झुक कर ही मिलता था। और ये आज का दिन था जो कोई देखता था हकारत भरी नजरो से देखता। ये सब सोच रामलाल के पिता जी की आँखे नम हो आई । गमछे से आँखों को साफ किया, औपचारिकताएं निभाया और चल पड़े घर की ओर I घर में से सुनैना की चिठ्ठी उठा लाए, एक कागज और पेन लेकर बैठ गय सुनैना को चिठ्ठी लिखने। चिठ्ठी लिखने तो बैठ गय पर उन्हें शब्द नहीं मिल रहे थे जिन्हे वो उस कागज पर उकेर सके। घण्टो सोचने के बाद उन्होंने सुनैना के द्वारा किय गय आदर सम्मान और सेवा भाव के बदले ढेर और बार बार अमार व्यक्त करते हुए लिखा की, अब हम दोनों बुढा-बूढ़ी जब तक जियेंगे शायद वैसे दिन हमे दुबारा देखने को न ही मिले। उन्होंने अपनी मनोस्थिति की वजह और उस वजह का विस्तार लिखा, रामलाल की कर gujari, उसकी दूसरी पत्नी और उसके होने वाले बच्चे के बारे में भी सब कुछ लिखा। आखिर में उन्होंने सुनैना के लिए खुब सारा आशीर्वाद लिखा और लिखा की बेटी अपनी जिंदगी को नई दीशा देने की कोशिश करना सदा खुश रहना और अपने माँ-बाप को खुश रखने की कोशिश करना।                                                                                                                                                                                                                                                                 तुम्हारा ससुर I

दोपहर का समय था सुनैना अपनी गाय को चारा डाल रही थी, डाकिया मुहल्ले में दाखिल हुए ही थे की उन्हें सुनैना दिख गई, दूर से ही आवाज लगाते हुए बोले- अरी ओ सुनैना वहीँ रुकना जाना मत आज तेरी चिट्ठी आई है। डाकिया बाबु के इस संबोधन से सुनैना के नैनो में पानी छलक आये, मारे खुसी के उसके हाथो से चारा का टोकरी दाना भरा बाल्टी दोनों गिर बिखर गए। सुनैना की इस हरकत से आस पास की औरतें लड़कियां भी इक्कठा हो गई, उनमे से अल्हड़ कुंवारियां सुनैना के साथ उसके पति को लेकर अठखेलियाँ करने लगी औरतें भी उनके साथ उसे छेड़ने लगीं।   डाकिया सुनैना को एक अंतर्देशीय चिठ्ठी दिखाते हुए बोला- ले आज तेरी चिठ्ठी आ ही गई…….! तु रोज-रोज मुझे तंग करती थी न, फाड़ इसे और जल्दी पढ़। सुनैना ने वो चिठ्ठी तपाक से लपक लिया था चिठ्ठी मिलते ही सुनैना के खुशियों का कोई ठिकाना न था, नहीं कोई सिमा रही, मारे खुशियों के उसका मन मस्तमग्न हो नॉच रहा था। डाकिया बाबु कुछ कहते इससे पहले उस चिठ्ठी को फाड़ चुकी थी, चिठ्ठी पर नज़र फिराया तो पता चला वो चिठ्ठी 10 दिनों पहले लिखी गई थी।

जैसे-जैसे चिठ्ठी पढ़ती गई, उसके चेहरे का रंग वैसे-वैसे उड़ता चला गया, सुनैना के बड़ी बड़ी आँखों में छलक आय खुशियों के पानी अब गहराते हुए आँशु बन पलकों से गिरने लगे। उसके चेहरे के बदलते भाव को देख उसके पास खड़े डाकिया बाबु और कुछ औरतो ने एक साथ पुछा- क्या लिखा है बेटा ? तु उदास क्युँ होती जा रही है? सब ठिक तो है? तुम्हारे सास-ससुर की तबियत तो ठिक है ? दमाद जी तो ठिक से है न बेटी ? क्या बात है? तु कुछ बोल क्युँ नहीं रही है? इतने सारे शवालो के जवाब में सुनैना के आँखो में सिर्फ आँशु ही दीखे, सुनैना के शरीर में मानो प्राण ही नहीं, वो किसी कटे हुए पेड़ की तरह ढह कर वही दीवार के सहारे टिक गई, उसे ऐसा लग रहा था जैसे वो भी गस्त खाकर गिर पड़ेगी, उसके हाथ से चिठ्ठी भी छुट गई। हाथ से चिठ्ठी छुटते ही हवा मे उड़ती चली गई, प्राण हो न हो इसका आभास न रहा, शरीर बिलकुल बेजान हो गया हो, तो वो मनहुस चिठ्ठी कैसे पकड़े रख सकती थी। एक बच्चा दोड़ कर चिठ्ठी उठा लाया, लेकिन बच्चा भी सुनैना की हालत देख किंगकर्तव्य बिमूढ़ में पड़ गया, चिठ्ठी देने की कोशिश भी नहीं कर सका।

सुनैना को थोड़ी सुध आई तो अपने आप को संभालती हुई उन औरतो को एक तरफ कर वहा से दौड़ती हुई घर की ओर मुडी, उसके मुँह से अब रोने की आवाज़ भी आने लगी थी। उसके पिछे सारी औरते भी लगभग भागती सी उसके घर में आँगन मे दाखिल हुई, उनके पीछे चिट्ठी पकडे बच्चा भी भागने लगा। बेटी को ऐसे रोते देख सुनैना के माता-पिता का कलेजा मुँह को आ गया, सुनैना के माता-पिता ने अपनी बेटी के चेहरे पर आज तक कोई सीकन भी नहीं देखा था, सब को खुश रखने वाली, हर किसी को हँसाने वाली उनकी इकलौती बेटी, उनकी लाड़ली आज इस कदर बेसुध हो क्युँ रो रही है? ये जाने बिना ही दोनों सुनैना के साथ रोने लगे। रोते-रोते ही सुनैना की माँ ने वहाँ इक्ठ्ठा हुई औरतो से पुछा- क्या हुआ मेरी बेटी को ? क्यूँ रो रही है ये इतनी ? उन औरतो में से एक ने उस बच्चे के हाथ से चिठ्ठी लेते हुए कहा- ये चिठ्ठी आई है, इसे ही पढ़कर सुनैना रोने लगी है। पता नहीं चाची इस चिठ्ठी में ऐसा क्या लिखा है जिसे पढ़कर हमारी फुल सी बच्ची जोर से रोती हुई भागी वहाँ से, और आप की गोद में ही आकर रुकी।

हम सब तो पढ़ना लिखना जानते ही नहीं है, हम जाकर डाकिया बाबु को बुला कर लाए ? सुनैना की माँ ने उस चिठ्ठी को तब तक झपट लिया उस औरत के हाथो से और कराहती हुई सी बोली- अरी पगली जा जल्दी बुला ला नहीं तो कही वो चले न जाए। वो औरत तुरंत डाकिया बाबु को आवाज़ लगाती हुई दरवाजे की ओर लपकी- ओ डाकिया बाबु….! डाकिया बाबु….! इधर आइए जल्दी चाची आपको घर बुला रही है I डाकिया बाबु (भी शायद इसी इंतजार में खड़े थे अभी तक) औरत की बात सुनते ही उसके पीछे हो लिए। डाकिया बाबु के आँगन में आते ही सुनैना की माँ ने गीड-गीड़ाते हुए कहा- इस चिठ्ठी में क्या लिखा है? जरा पढ़कर सुनाइए तो, मेरी बेटी इसे पढ़कर क्युँ रो रही है ? वो तो कुछ बताने के लायक ही नहीं देखिए…! डाकिया बाबु अब अपने आप को रोक न सके वो भी अब उन लोगो को देखकर भावुक होते जा रहे है थे। चिठ्ठी लेकर मन ही मन पढ़ने लगे, सुनैना की माँ पागलो की तरह कभी अपनी बेटी के आँसु पोछती तो कभी डाकिया बाबु को निहारने लगती, डाकिया के मन ही मन उस मनहूस चिट्ठी को पढ़ना उसे और बेचैन करने लगा था।

आखिरकार सुनैना की माँ डाकिये को लगभग डांटती सी बोली-चिठ्ठी को आप सिर्फ देख क्युँ रहे है ? पढ़ना नहीं जानते है क्या ? हम सब को सुना कर पढ़िए जल्दी। डाकिया बाबु सुनैना के माँ की मनोस्थिति समझ सकते थे इसलिए उन्होंने उसके बातो पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया और चिठ्ठी आगे पढ़ते गय। चिठ्ठी के उस भाग को पढ़ना तो उनका मन भी नहीं चाहा जहाँ सुनैना के ससुर ने सुनैना के लिए लाखो आशीर्वाद और दुआँए लिखे थे, वो वही रुक गय, चिठ्ठी अपने मन से नोच-फाड़ डालने की भावना से उसे मोड़ा और खड़े-खड़े ही खपडैल छत के एक बाँस में ठूँसते हुए कहने लगे -- इस लड़की की जिंदगी बर्बाद हो गई, इसके पति ने....s.s..s..! सारा माजरा एक साँस में कह सुना था। डाकिया बाबु जैसे-जैसे चिट्ठी का वृतांत सुनाते गय वैसे-वैसे उनका भी गला भरता  चला गया, वो आखिर अपने आपको रोक नहीं पाए, भरार्य गले से माफ करना- कहते हुए आँगन से बाहर निकल गय। वहाँ खड़ी औरते सुनैना और उसके माँ-बाप को ढाँढस बंधाती रही सत्वावनाए देती रही, कुछ देर और रुकने के बाद वो भी उनके हाल पर छोड़ धीरे-धीरे अपने-अपने घर को चली गई। जीवन की सच्चाई भी यही है की दूसरे का दुःख दूसरा कोई समझ तो सकता है पर बाँट नहीं सकता। किसी के दुःखो में कोई और शामिल तो हो जाता है, उसके साथ रो भी लेता है पर उन दुखो को उसके सिवाय कोई और काट नहीं सकता।

शाम हो चली थी सुनैना अब भी उसी हाल मे अपने आँगन में बैठी शुन्य में ताके जा रही थी। सुनैना की माँ चुल्हे पर खिचड़ी चढ़ा कर नलके से पानी लेने गई हुई थी उसकी भी आँखे अभी तक नम थी। चुल्हे की आँच जलते-जलते चुल्हे से बाहर आ गई थी, लेकिन सुनैना को इतना होश नहीं था की वो उठ कर आँच को सम्भाल ले। आँच थी की जैसे सुनैना को मुँह चिढ़ाते बाहर को निकलती ही जा रही थी, इतने में सुनैना की माँ सर पर घड़ा रखे आँगन में दाखिल हुई। सुनैना की माँ ने आँच को देखा तो उसे सुनैना की सुध आई पर अपनी बेटी को आँच क्युँ न सम्भालने के कारण नहीं जान पाई, उसके बस में नहीं था। खिचड़ी का पतीला उतारा दोनों बेटो को परोसा अपने हाथो से खिलाया और सुला दीया। एक थाली में खिचड़ी डाल बेटी को अपने हाथो से खिलाने की कोशिश करती रही, पर खिचड़ी का एक भी निवाला सुनैना के मुँह में नहीं गया । वही थाली अपने पति के सामने रखती हुई बोली- बेटी तो खा ही नहीं रही है बहुत कोशिश कर लिया आप कुछ खा लो रात बहुत हो गई। तुमने कुछ खाया? सुनैना के पिता जी ने अपनी पत्नी से पुछा I हुँ - बच्चे भी दोनों खा कर सो गय- अपने झुठ को दबाती हुई सुनैना की माँ ने पानी का गिलास उनके सामने रखा और सुनैना को अपने पुरे बल बुते से उठा कर बिस्तर तक ले गई। सुनैना और उसकी माँ की आँखों में ही सारी रात कटी।

सुनैना के पिता जी को सुबह ही कलकत्ता के लिए रवाना होना था इसलिए वो जबरन सोने की कोशिश करते रहे, पर नींद मानो उनके आँखों तक आने से साफ मना कर चुकी थी। उनकी भी रात करवटें बदलते ही कट गई। सुबह चिड़ियों के चहचहाअट के साथ ही वो बिस्तर छोड़ चुके थे। नित्य क्रिया से निपट उन्होंने गणपति जी के चरणो में अपना शिश झुकाया, और प्रार्थना करते रहे की सब कुछ ठीक ठाक और उनकी बेटी के ख़ुशी के हक में हो। सुनैना को उसकी माँ ने नहलाया किसी तरह साड़ी बाँधी, पिता के हवाले करती हुई बोली- जा बेटी अपने पिता के साथ। सुनैना के हाथ पैरो में थोड़ी बहुत हरकत हुई, वो पिता जी की ओर जाने के बजाए अपने सिंगार की डिबिया खोल कर माँग में सिंदुर भरा, माथे पर बिंदी लगाई और तब पिता जी के हाथो का थैला लेती हुई बोली- चलो पिता जी। माता-पिता दोनों एक पल के लिए भौचक्के रह गय उन्होंने तो यही सोचा की अब क्या मायने रह गय इस सिंदुर और इस बिंदी का I

लेकिन उनकी बेटी अभी भी सुहागन थी ये सोच कर वो कुछ नहीं बोल सके। सफर में पिता और बेटी दोनों साथ बैठे तो थे पर दोनों आपस में कुछ बोल नहीं रहे थे, बोलते भी क्या उनके पास बोलने-बात करने के लिए कोई वजह ही नहीं बन पा रहा था। जब किसी स्टेशन पर ट्रेन रूकती उसके पिता- कुछ खाले ले बेटी कहते तो सुनैना ना में सर हीला कर रह जाती। सुनैना ने मानो अन्न ना खाने की कसम ले ली हो सिर्फ थोड़ा पानी पी लेती और खिड़की की तरफ मुँह करके बैठ जाती। पुरे 12 घण्टो का सफर उसका युँ ही कटा, आखिरी स्टेशन पर उतरते ही उसके पिता ने एक बार फिर आग्रह किया बोले- कल रात से कुछ नहीं खाई है, तेरा दूसरा दिन हो गया भुखे ऐसे कैसे चलेगी चल बेटा कुछ खा ले। सुनैना अपने पिता की आग्रह एक बार और टाल गई बोली - चलिए पिता जी हमें घर जल्दी पहुँचना है देर हो जायगी। पिता के दिल में अपनी बेटी के मुँह से घर सुनकर एक अजीब सी हुँक सी उठी, उन्हें ऐसा लगा शायद किसी ने उनका कलेजा पकड़कर मसल दीया हो। बुजुर्ग व्यक्ति अपने सीने के बाँयी ओर हाथ रख बेटी के साथ रास्ते को हवा के झोको के साथ पीछे धकेलते आगे बढ़ते चलते चले गय।

सुबह 10 बजे तक दोनों रामलाल के बेड़े के करीब पहुँच गय, पिता तो घर जाने से पहले ही ठिठक गय उनके पैरो में जैसे जान ही नहीं रही हो। बेटी पिता को बिना देखे ही घर की ओर चलती चली गई, घर के अंदर दाखिल हुई तो सामने अपनी सास को बैठी देखा। सास की नजर सुनैना पर पड़ी तो उठ कर दोड़ती हुई उसे गले से लगा लिया, दोनों एक दूसरे के गले लगे रोते रहे, सुनैना तो अपनी सास को देखते ही फफड़ पड़ी थी। उनके रोने की आवाज़ से पास के लोग तो इकठ्ठा हो ही गय, पड़ोस मे रहने वाले लोग भी धीरे-धीरे वहाँ जमा होते चले गय। कोई सुनैना को पकड़कर चुप कराने की कोशिश में नकाम हो रहा है तो, कोई उसकी सास को, किसी तरह औरतों ने दोनों को अलग किया और रामलाल के घर के  आँगन तक ले कर आईं । अनीता को अपने आँगन के शोर गुल से माजरा समझते देर नहीं लगी लेकिन उसने बाहर आकर देखना मुनासिब नहीं समझा अपने कमरे में ही दुबकी रही।

रामलाल के पिता बाहर से आते हुए सुनैना के पिता को लेते आए। सुनैना के पिता को जलपान के लिए दीया गया तो उन्होंने बेटी का घर है कहकर मना कर दिया। सुनैना अपनी सास के साथ वही आँगन मे बैठ गई, वो अभी भी सुबक रही थी। हर किसी की नजर उसी पर टिकी हुई थी, सिर्फ सुनैना के पिता की नजरे नीचे जमीन की ओर झुकी हुई थी। सुनैना की सास सुनैना से कहती हुई उठी बैठ बेटी मैं अभी आ रही हूँ, घर के अंदर गई उसके लिए पानी और कुछ खाने को लाई और कहने लगी- ले बेटी पानी पी ले दिन चढ़ गया भुखी-प्यासी होगी। सुनैना की सास के इस बातो पर सुनैना के पिता जी का सर उपर उठा, वो कुछ कहने ही वाले थे की सुनैना को अपनी ओर देखती हुई देख पर चुप ही रह गय। सुनैना ने अपनी सास से कहा- माँ जी वो (रामरामलाल) कहाँ है उनसे मिल कर ही कुछ खाऊँगी मुझे उनसे मिलना है जल्दी बुलाइए उन्हें।

रामलाल अपने नय ससुर के होटल पर गय हुए थे, उनकी माँ ने एक बच्चे को भेजा बुला लाने को। लड़का रामलाल को आवाज़ लगाते हुए बोला- ए चाचा चलो घर चाची आई है गाँव से तुम्हे बुला रही है। बच्चे की बात पूरी होते ही रामलाल के तोते उड़  गय उन्हें ऐसा लगा जैसे किसी ने बिजली की नंगी तार उनके बदन से छुवा दीया हो। होटल में खाने की तैयारी में लगे रामलाल के नय ससुराल के सारे लोग- दोनों साले ससुर भी बच्चे के इस बात पर भौंचके रह गय। तीनो बाप बेटे एक दूसरे का मुँह ही ताकते रह गय किसी के मुँह से कोई बोल नहीं फुटा, रामलाल चुपचाप वहाँ से उठे और उस लड़के के साथ चल पड़े, रामलाल चल तो पड़े पर उनका दिल किसी बोझ तले दबता चला जा रहा था।

बोझिल कदमो से वो हर पग अपने घर की ओर बढ़ते तो जा रहे थे, पर उनका मन चाहा की वो घर ना जाकर कहीं और भाग जाए। भाग कर कहाँ जाए ? उन्होंने अपने मन से पुछा- उत्तर नहीं मिला, घर जाकर भी कैसे सामना करूँगा सुनैना का, कह दुँगा मुझे तु पसंद नहीं है, नहीं-नहीं ऐसे अगर उसे डायरेक्ट बोल दीया तो मुशकिल हो जायगी सब लोग मेरे और भी दुशमन हो जायगे, उसे अकेले में बिठा कर समझा दुँगा, वो सब समझ जाएगी। सुनैना को देहाती गवाँर तो समझते ही थे। रामलाल अपने दिल-दिमाग की इसी उहाफोह में घर के चौखट पर आ गाय, उन्हें अपने आप को अपने बेड़े के पास पा कर समय के जल्दी और रास्ते को तुरंत कट जाने पर बड़ा ही क्रोध आया। पर वो कर भी क्या सकते थे सच्चाई उनके सामने थी। झल्लाये मन के ना चाहते हुए भी मन को मसोस कर रामलाल बेड़े में दाखिल हुए, उन्हें देख कुछ अनावश्यक औरतो और बच्चो को वहाँ से जाने को कह दीया गया।

सुनैना अब उठ खड़ी हुई और रामलाल के सामने खड़ी हो गई रामलाल के आँखों में आँखे डाल कर पुछा- आपने जो कुछ किया मुझे उससे कोई दुःख नहीं, लेकिन मैं कहाँ जाऊँगी ? मेरा क्या होगा ? मैं किसके सहारे जिउँगी ? मुझे इसका जवाब चाहिए I सुनैना के ये शवाल वहाँ सभी के दिल को एक साथ कचोट गय, रामलाल कोई उत्तर नहीं दे सके उनकी नजरे झुक गई। मै एक औरत हुँ, आप की पत्नी भी, और जिस आदमी की नजर अपनी ही औरत के सामने झुक जाए, जो मर्द अपनी पत्नी की नजरो के सामने ऐसे जैसे आप नजरो से ही सही गिर जाए उसके सामने झुक जाए, वो मर्द मेरे काबिल नहीं है। सुनैना के बोल रामलाल के सीने में खन्जर की तरह लगा। फिर भी वो चुप रहे। जो व्यक्ति नैतिक-अनैतिक का बिचार न कर शारीरिक सुख में लगा रहना चाहता हो, जिसे मानसिक आत्मिक सुख का ज्ञान नहीं वो मर्द, वो व्यक्ति मेरी नजर में पुरूष नहीं है जिसके पास मेरी जैसी कोई पत्नी रह सके। सुनैना रामलाल को भक्ति और भाव पुर्ण बाते कहती रही पर रामलाल अब भी चुप खड़े रहे।

सुनैना की बातो से रामलाल को कोई मलाल या दुःख नहीं हुआ बल्कि उनकी आत्मा ने उन्हें धिक्कारना सुरु कर दिया, जाहिल गवाँर समझने वाले रामलाल के मन में सुनैना के प्रति स्नेह और आदर के भाव उमड़ने लगे, उन्हें अब सुनैना लाखो करोडों में से एक दिखने लगी। पश्चाताप की ताप में पड़े रामलाल का शरीर बोझिल लगने लगा, उनका जी चाह रहा था की वो सुनैना के पैरो पे गिर जाए और अपने किये की माफ़ी मांग ले, सुनैना उन्हें जरूर माफ़ कर देगी I उसे अपनी बाँहों भर ले, और ऐसे भर ले की फिर कोई और उन्हें आजीवन अलग न कर सके I परन्तु वो मन की मन में ही मान सकते थे सुनैना के साथ बसाया घरौंदा रामलाल खुद अपने हाथो उजाड़ कर अनीता के साथ नए बसेरे में रहने लगे थे।

रामलाल के इस तरह बुत बने चुप-चाप हाथ बाँधे खड़े रहना सुनैना को उनकी सबसे बड़ी कमजोरी दिखी, सुनैना मात्र दो महीने तो थी ही रामलाल के साथ, उन्हें समझने का मौका ही नहीं मिला था। सिर्फ दोनों की रात की मुलाकात हुआ करती थी, कुछ एकतरफ स्वार्थ में तो कुछ आनन फानन के प्यार व्यवहार में कट जाती थी। रामलाल अब सुनैना के नजरो में पुरी तरह गिर चुके थे, सुनैना अब एक पल भी वहाँ रुकना नहीं चाहती थी। उसने अपने पिता के समीप जाकर उनका थैला उठाया और बोली चलिए पिता जी अब मैं अपने घर ही रहूँगी। बेटी के इस भक्ति पुर्ण बातो पर, अपने हक के लिए न लड़ने पर, रामलाल  के कुकर्मो के बदले उन्हें सजा न देने और दिलाने पर, उसकी अपनी जिंदगी के बर्बाद होने के तनिक भी मलाल न होने पर, इन सभी बातो पर सुनैना के पिता को अपनी बेटी पर बड़ा ही क्रोध आ रहा था। पर बेटी की महानता और रामलाल के कायरता देख उनका सारा गुस्सा रामलाल के ठीकरे फुटना चाहा, उन्होंने चाहा की बेशर्म बन चुप-चाप खड़े रामलाल को अपने बुजुर्ग हाथो से खुब पीटे, उन्होंने चाहा की अपनी बेटी के दुखो का अहसास करने के लिए रामलाल को ऐसा श्राप दे की वो कभी भी खुश न रह सके, और मंशा पुर्ण हेतु अपनी जगह से उठ खड़े हुए।

सुनैना अपने पिता जी के चेहरे के बदलते हाव-भाव को पढ़ चुकी थी, पिता के उठकर रामलाल की ओर रुख करके चलना उसे अटपटा सा लगा, वो भी पिता के साथ रामलाल के पास जाकर पिता और रामलाल के बीच खड़ी हो गई। सुनैना ने अपने दोनों हाथ जोड़े और पिता से बोली- ना पिता जी ये जैसे भी है मेरे पति है, उनके सुख में ही मेरा सुख है, मेरी माँग में आजीवन सिंदुर लगा रहेगा, मैं अब इन्ही सिंदुर के नाम से जिउँगी आप इन्हे कोई श्राप न दे। सुनैना के पिता जी ने सुनैना को कंधो से पकड़ा और लगभग झिझोड़ते हुए से बोले- पगली ये कलयुग है (रामलाल की ओर हाथ करके) तु ऐसे आदमी के नाम की सिंदुर अपनी माँग में भरेगी? नहीं पिता जी ! सुनैना बोली-- मैं किसी आदमी के नाम की नहीं, मैं उन मंत्रो की इज्जत रखना चाहती हुँ जिसे मैं शादी के वक्त पढ़ा था, मैं उस अग्नि के फेरे को झुठलाना नहीं चाहती जिसे एक ब्राह्मण द्वारा सात बार करवाया गया था। मैं बाँसों से बने उन माड़ो को सुनी मांग करके कैसे देखूंगी जो आजतक आप के आँगन में खड़े है। चलिए इन्हे अपने हाल छोड़िए हम घर चलते है- कहती हुई सुनैना लगभग खीचती हुई अपने पिता को दरवाज़े तक ले जाने की कोशिश करने लगी। पीछे से कई आवाज़ एक साथ आई रुक जा बेटी मत जा, कहाँ जायेगी तु यही रह हमारे साथ। लेकिन सुनैना ने मुड़ कर सिर्फ उस चौखट को प्रणाम किया बस, किसी के अवाज का कोई उत्तर नहीं दीया। सुनैना चल पड़ी पिता के संग अपने घर को फिर उसी पुल्कित मन के साथ जो कभी उसके बचपन, फिर किशोर और अल्हड़ जवानी में रहा करता था। उसने अपना दो महीने का अतीत पीछे छोड़ दिया था I

सुनैना को परिस्थितियों, मौजूदा बने माहौल में ढल जाना बखुबी आता था। रामलाल के आँगन में खड़े होकर महाभारत के भिब्म पितामाह की तरह भिषण प्रतिज्ञा लेने वाली सुनैना इस दुनियाँ की पहली औरत होगी। मेरी आत्मा नतमस्तक हो मन ही मन झुक कर उसे प्रणाम करतीं रहती हैं, एक बार तो मुझे ऐसा आभास हुआ उन्हें देखकर की वो इस युग में किसी देवी का अवतार है। उनके मुखड़े का तेज ये बताता है कि कोई भी दुःख उन्हें छु नहीं पायेगा। रामलाल के करतूतो ने सुनैना को जिंदगी भर के लिए अकेला कर दिया था, और उसकी भीषण प्रतिज्ञा से अब उसे बाकी की जिन्दगी अपने माता पिता के घर रह कर काटनी पड़ेगी I सुनैना के दिल में अपने जिन्दगी को लेकर एक बहुत बड़ा दुखो का शैलाब घुट रहा था I वो जानती थी की मेरे फैसले से माँ बाप को भी दुःख तो होगा ही, उसे लेकर उन्हें दुनियाँ के पूछे शवालो का हर वक्त जवाब भी देना पड़ेगा इससे उनका दुःख और बढ़ जायेगा I इसलिए उसने अपने साथ हुए हर नाइंसाफी और मन के अन्दर उफनते टिस को दबा कर अपने माँ बाप खुशी के लिए अपने चेहरे पर हमेशा के लिए बनावटी खुसी का मुखौटा दाल लिया I

सुनैना के पिता बेटी के व्यवहार मे आए अचानक बदलाव से बखूबी परिचित थे, मन ही मन सुनैना की बाकि जिंदगी अकेले गुजारने की भीषण प्रतिज्ञा कचोटने लगीI सुनैना रास्ते भर बातो बातो से अपने पिता को मुश्कुराने पर मजबुर करने लगी थी। उसके पिता भी मुस्कुराये बिना नहीं रह पाते बेटी की खुसी के लिए ही सही होठो पर जबरन मुस्कान लाने की कोशिश करते। सुनैना पिता के साथ हँसती, मुस्कुराती आँगन में दाख़िल हुई, सुनैना के वापस आने के समाचार से आस पड़ोस में रहने वाले उसके पीछे-पीछे उसके आँगन में आ गय। सब कोई सुनैना के इस रूप को देखकर हैरान था, पहले तो ये लड़की गमो में डुब गई थी, वहाँ से आने के बाद इतनी खुश क्युँ है? ये हर कोई जानने को उत्सुक था। सुनैना सबको सम्बोधित करती हुई बोली- आप सब मुझे ऐसे क्युँ देख रहे है ? मेरे पति ने मुझे छोड़ दिया तो मैं भी उसे उसके घर जाकर ढुकरा आई। अब मैं आप लोगो के साथ यही और वैसे ही रहूँगी जैसे शादी से पहले रहा करती थी। सुनैना के बातो पर सब को उस पर गर्व तो हुआ पर अकेलेपन के एहसास की लहर सबके मन को कुरेद गई। उसके साथ मिल बैठ सुख दुःख, कलकत्ता आने जाने और वहाँ घटित घटना क्रम पुछने जानने को उत्सुक होने लगें।

सुनैना उन सभी को अपने चेहरे पर खुशियाँ लाने की कोशिश करती हुई दिल के न चाहते हुए भी हर एक के शवालो का जवाब देती रही I सुनैना के माता-पिता के दिल के किसी कोने में जवान बेटी को अपने घर में रहने का मलाल रह गया था। उन्हें वो कसक वक्त-दर-वक्त कचोटती रही, पर बेटी के खुश चेहरे को देखकर वो भी उसके उस बनावटी ही सही ख़ुशी में शामिल हो जाते I माँ बाप से अपने औलाद के सुख और दुःख कैसे छुप सकता है, फिर भी अपना दर्द बल पुर्वक छुपाने की कोशिश करते। माँ का दिल फिर भी सुनैना को लेकर चिंतीत रहा करता था वो अक्सर बीमार रहने लगी। वक्त तो कटता ही रहता है, धीरे-धीरे वक्त सात महीना का कट गया। एक बार किसी व्यक्ति द्वारा समाचार मिली की रामलाल को बेटी पैदा हुई है। समाचार से सुनैना के मुँह से बेटी के लिए आशीष तो निकले, पर वो समाचार सुनैना के माँ को सहन नहीं हो सका। सुनैना की माँ ज्यादा बीमार हो गई कुछ दिनों इलाज चला, लेकिन वो इलाज उनकी जान नहीं बचा सका वो परलोक सिधार गई। माँ के गुजर जाने से सुनैना को एक बार फिर गहरा झटका लगा था, उसके पिता जी भी गमगीन रहने लगे थे। पिता को देख सुनैना को आत्म ग्लानि होती वो खुद को अपने परिवार को दुखो में डुब जाने का कारण समझती।

पिता को खाना खिलाने के बाद सुनैना बातो- बातो में इसका जिक्र करती हुई बोली- मैं ही मनहूस पैदा हुई हूँ पिता जी मेरे ही चलते माँ हमें छोड़ कर चली गई, सुनैना के बातो से पिता उसे समझाते हुए उसके सर पे हाथ फेरते हुए कहने लगे- अरी नहीं पगली तू ऐसा क्युँ सोचती है? सब उपर वोले का करा-धरा होता है। जब जहाँ जैसे कुछ भी होता है वो सब पहले से तय होता है। तू अपने आप को कशुरवार मत समझ, कहते हुए सुनैना के पिता सोने चले गय I अगले दिन सुनैना के पिता कुछ सोच में बैठे हुए थे, उनके एक पड़ोसी और दोस्त उन्हें इस तरह बैठे देख पुछ बैठे- क्या बात है नन्हकू भाई? ऐसे गहरी सोच में क्युँ पड़े हो? कुछ नहीं भाई बस सुनैना के बारे में सोच रहा था- गहरी साँस लेते हुए नन्हकू राम बोले। अब जिंदगी का क्या भरोसा मैं सोच रहा हुँ की कुछ जमीन लड़की के नाम कर दु, भाई भाभी किसके होते है? बेटो की शादी होगी, तो हो सकता है सुनैना को उसका पारिवारिक सम्मान न मिले। जमीन रहेगी तो आत्म सम्मान के साथ जी सकेगी I अपने ही जमीन में कुछ उपजाकर खा पी तो सकती है, किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाना पड़ेगा बेटी को। वाह भाई साहब आप महान है- कहते हुए उनके दोस्त उनके तारीफों के पुल बाँधने लगे।

किसी महान सोच रखने वाले के ही यहाँ समझदार महान आत्मा, महान सोच वाला सन्तान भी पैदा होता है। वो भी उसी संस्कारो में पला बड़ा होता है। सुनैना के पिता सुनैना को बगैर बताए ही अपनी जमीन का कुछ हिस्सा सुनैना के नाम कर आए। शाम को सुनैना को अपने पास बिठाते हुए बोले- देख बेटी तेरी प्रतिज्ञा की लाज हमने रखी अब तु मेरी एक बात समझने की कोशिश करना ये ले- जमीन के कागजात देते हुए - अपने पास रख मैंने दो बिघा जमीन तेरे नाम कर दिया है। और उसे उसके जिंदगी के रास्ते, मतलबी दुनियाँ और जमाने के तरीको से तैयार किए गय रिति-रिवाजो रिस्ते-नातो का मोल-महत्व समझाने लगे। सुनैना जमीन की कागज को अपने आँचल में सहेजते हुई बोली - पिता जी ऐसा कियूं किया भाइयो की शादी होगी तो हो सकता है उन्हें और उनकी पत्नियों को एतराज हो, मैं उनकी जमीनों में भी काम कर खा सकती थी। नन्हकू राम ममतामयी लहजे में बेटी को समझते हुए कहने लगे- देख बेटी जमीन कहा भाग जाएगी तेर नाम रहे चाहे मेरे नाम मेरे तेरे बाद तो उनकी ही रहेगी। अब ज्यादा मत सोच जो हो रहा है वो ठीक ही हो रहा है तू जा खाना ला खिला खा और जाकर सो जा।

समय चक्र अपनी गति से घूमता रहा सुनैना अपने दोनों भाइयो और पिता के साथ, अपने जमीनो में अनाज पैदा कर अपना घर चलाने लगी, अपने दोनों भाइयो को पास के ही गाँव में पढ़ने को भेजती रही, उनका हरदम माँ की तरह ख्याल रखने लगी, खुद भी खुश रहती और अपनी छोटी सी दुनियाँ को खुश रखने की हर सम्भव कोशिश करती रही। इधर कलकत्ता रामलाल के घर दो साल बाद फिर एक लड़की पैदा हुई, उसके दो साल बाद फिर एक लड़की ने जन्म लिया, रामलाल को अब तीन लडकिया हो गई। रामलाल और अनीता को अब लड़के की चाहत थी, उन दोनों ने भक्ति भावना शुरू कर दिया, लड़के की चाहत ने जो जैसे टोटका बताता वो सब करते, यहाँ तक की रामलाल ने शराब और कबाब भी छोड़ दिया, अनीता ने तो शादी के दो महीने पहले जब उसके पेट में बच्चा आया तभी पीना छोड़ दिया था। उपर वाले ने उनकी प्रार्थना सुन ली और 5 साल बाद रामलाल के जुड़वा बेटे पैदा हुए।

रामलाल के यहाँ अब खुशियाँ ही खुशियाँ थी, उन खुशियो में पार्टियाँ होने लगी, आय दिन होने वाली पार्टियो में शराब कबाब भी चलने लगे। जब जाम टकराने लगे तो रामलाल पीछे कैसे रहते, उनका तो फिर शराब कबाब इतना होने लगा की उनके घर के खुशियो में बट्टा लगने लगा। उनके सकियों के साथ होने वाले शोर शराबे से उनके माँ-बाप कुढ़ने लगे इस हलातो में वो जीते हुए भी मरते रहते, रामलाल के इन्ही आदतो से परेसान गुमशुदगी में जीवन बिताते हुए आखिर कार एक दिन उनके पिता का देहान्त हो गया। कुछ दिनों बाद उनके माता का भी देहान्त हो गया। रामलाल के दोनों बेटे लगभग 4 साल के ही थे की एक दिन उनकी पत्नी का भी अपने होटल पर जाते समय रोड एक्सीडेंट में देहान्त हो गया। रामलाल अपने पाँच बच्चो के साथ दुनिया में अकेले रह गय। रामलाल पर एक पहाड़ और टुटा, रामलाल ने अपनी पत्नी का क्रिया क्रम भी नहीं किया था, तभी उनके बेड़े में रहने वाला एक बँगाली परिवार उनके घर पर अपना दावा कर दिया। वो बँगाली परिवार रामलाल के बेड़े में काफ़ी सालो से रहते चले आ रहे थे, किसी बात पर रामलाल से उनकी ठना-ठनी चल रही थी, वो तो रामलाल के पिता जी के वजह से अभी तक रहते आ रहे थे। माँ और पिता के गुजर जाने के बाद रामलाल ने उस परिवार को अपने बेड़े से निकाल देना चाहा लेकिन उस बंगाली परिवार ने कमरा खाली करने से मना कर दिया।

बहुत दिनों से किराया देते रहने के कारण मकान खुद का बताने लगा, उसे देख उस बेड़े के एक दो परिवार और उसके साथ हो गया। रामलाल प्रदेशी होने वहाँ अपना और कोई न होने की वजह से अकेले पड़ गय। उन्हें अपना मकान हाथ से जाता नजर आने लगा वो उनके साथ कानुनी दाँव पेंच में भी हार गय। अंततः उन्हें अपना बेडा एक बँगाली को ही औने-पौने दाम पर बेचना पड़ गया। सब कुछ बिक गया बेड़े के साथ रामलाल अपने बच्चो को लेकर गाँव आ गय, गाँव में उनका दिल नहीं लगता उनके पास कोई काम नहीं था। गाँव का काम खेती बाड़ी उनसे हो नहीं सकता था। रामलाल अपने अगली पिछली और आने वाली जिंदगी, बच्चो, घर काम इन सब के बारे में अक्सर सोचते रहते। दोनों बेटे अभी छोटे थे उनका देखभाल, बड़ी होती बेटियो का विवाह न जाने और क्या-क्या सोच-सोच रामलाल अवशाद ग्रस्त हो गय। अपने मानसिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए उन्होंने शराब पीना तेज कर दिया, उनके पास अपना बेडा बेचने से पैसा तो था ही, कबाब और शराब जब चलता तो इनके ग्लास से ग्लास टकराने के लिए साथी भी बहुत बन गय। नशे में रहते इन्होने बच्चो का ख्याल रखने में भी लापरवाह हो गय, बिन माँ के बच्चे उनकी कद्र जब बाप नहीं कर पाता तो और कौन करेगा।

किसी के समझाने पर रामलाल चिड़ जाते और उससे झगड़ा मोल ले लेते, कइयो ने तो ये कहना शुरू कर दिया की रामलाल अपने आप से परेशान होकर शराब इतना पिते है, जो उनका दिमाग खराब कर रही है, अगर ऐसा ही रहा तो रामलाल पागल हो जाऐगे। आस पास मुहल्ले के लोगो को उनके बच्चो को देख बड़ा ही तरस आता, बच्चे कभी-कभी पुरा-पुरा दिन भुखे रहते, भुख से रोते बिलखते रहते। एक बार मुहल्ले के एक बुधि जीवी व्यक्ति ने चार-पाँच लोगो को इकठ्ठा कर रामलाल को सुधरने या फिर बच्चो का ख्याल रखने का हिदायते देने लगे। रामलाल ने दोनों ही न कर पाने की असहमति बता दी उन्होंने कहा मेरे बस का नही है। तब उनमे से ही किसी ने उन्हें सुनैना को वापस लाने की बात कह दी। रामलाल अपनी कर्ममाया याद कर चुप रहे, उन्हें पता था ऐसा नहीं हो सकता, कुछ सोच समझने के बाद उन्होंने ना में सर हिला दिया। वहाँ इकठ्ठा लोग रामलाल को बुरा-भला कहते हुए उठ कर अपने-अपने घर चले गय।

उस रात रामलाल को नींद नहीं आ रही थी मन लोगो के बातो पर जा कर अटक जाता, लेटे-लेटे मन सुनैना की ओर जाता तो सुनैना के साथ बिताये वो 2 महीने याद कर खुद पर रोष कर रह जाते I रामलाल को सुनैना के साथ किये बर्ताव पर खुद को उसका मुजरिम समझने लगे थे, पर वो ये सोच कर अपना माथा झटक देते की अब ये सब सोचने का क्या फायदा बहुत देर हो गई है I आधी रात तक तो वो करवटे ही बदलते रहे, सुनैना की वो सादगी भरी जिंदगी अपने और अपने माता पिता के प्रति उसका सेवा, सतकार, प्रेम भावना, समर्पण सब एक एक कर रामलाल को सोने नहीं दे रही थी, लेकिन सुनैना के वो आखिरी बात जो उसने रामलाल को जाते जाते कह गई थी, जेहन आते तो रामलाल मारे शर्मिंदगी के अपने आत्मा से भी मुँह छुपाने की जगह ढूँढने लग जाते I फिर तो रामलाल तकियों में अपना मुँह छुपा कर सोने की कोशिश करने लग जाते, इन्ही कोशिशो में जब नींद आई तो सपने भी आने लगे और सपने में सुनैना भी आने लगी वो रात उनकी वैसे ही कटी सुनैना को सपनो में ही देखकर।

दशहरे का दिन था जगह-जगह मेला लग रहा था। रामलाल सुबह उठे जल्दी नहा धो कर तैयार हुए, बच्चो को भी जल्दी-जल्दी तैयार कर ही रहे थे की, बच्चो ने एक साथ पुछा हम कहाँ जा रहे है ? दशहरे का मेला देखने बेटा- रामलाल ने कहा I इतने दिनों बाद बाप को बदलते देख और मेला घुमाने ले जाना बच्चो को अटपटा सा लगा पर उनमे से किसी ने और कुछ नहीं पुछा। रामलाल गाँव से बाहर आए बस पकड़ा और चल पड़े अपने पहले ससुराल, बच्चो को लेकर बस में बैठ तो गय पर उनका दिल भी बैठता चला जा रहा था, बस जैसे-जैसे अपनी बढ़ती गती के साथ मंजिल की ओर चली जा रही थी, वैसे-वैसे रामलाल के चेहरे का रंग उड़ता चला जा रहा था। वहाँ जाकर मैं सुनैना से क्या कहुँगा? उसका मैं कैसे सामना करूँगा ? लोग क्या कहेगे ? ऐसे किसी पर्व त्यौहार के दिन का मेरा वहाँ जाना ठीक रहेगा ? कहीं वहाँ के लोग मुझे भला बुरा ना कहने लग जाए ? लोगो की क्या बात है ? सुनैना और उसके परिवार वालो की बात है बस, वो कैसा व्यवहार करेंगे मेरे साथ ? ऐसे ही ना जाने क्या-क्या सोचते, अपने आप से पुछते अपने आप को ही जवाब देते रामलाल उहापोह में पड़े बैठे रहे। वो अपने से किय गय तमाम सवालो में से किसी एक का भी उत्तर अपने आप में नहीं ढूँढ पाए, उनकी बेचैनी और बढ़ गई, उनके दिल ने उन्हें झकझोरते हुए कहा की बस को रुकाओ और उतर कर चलो घर, वर्ना वहाँ जाकर जिंदगी में जितने भी कुकर्म किय है, उन सब के बराबर की जिल्लत देखने और सहने को मिल सकते है।

रामलाल अपनी आत्मा की सलाह पर एक बार अंदर तक हिल गय, एक दो बार उन्होंने इसी बीच हाथ उठाकर बस के कण्डकटर को इशारा भी किया की वो बस रोक दे, पर यात्रियों में व्यस्त कण्डकटर रामलाल की ओर क्युँ देखे? इशारो के साथ रामलाल के गले से आवाज़ जो नहीं निकल पाई थी। आखिर कार रामलाल ने अपने सर की जिल्लतो का पिटारा अपने बच्चो के सर पर रखते हुए उनकी ओर देखकर सोचा, बच्चे साथ में है शायद वहाँ बच्चो के सामने लोग कुछ ना कहे। रामलाल अपने गावँ से चार कि.मी. दूर आगय, लेकिन अचानक बच्चो को साथ होते देख उन्हें ऐसा लगा जैसे उनके जान में जान अब आई, जैसे रेगिस्तान के भटक रहे किसी को पानी की सोत दिखाई पड़ गई हो। उससे पहले उन्हें अपने बच्चो की सुध ही कहाँ थी, उनकी बच्चो पर नजर पड़ी तो उन्हें अपने आप की भी सुध आई की मेरे बच्चे मेरे साथ है।  

बच्चे कई दिनों बाद घर से बाहर निकले थे, बस में इत्तफ़ाक से मिली खिड़की वाली सीट के पास सब इकठ्ठा हो बाहर नजारा देखने में मग्न थे, सब भाई बहन एक दूसरे को बाहर की ओर ऊँगली कर बस की गति के साथ घुमते चीजो को दिखाते, खेतो में लहराते धान को कोई चहकते हुए ये कहता है की ये देख बड़ा वाला खेत मेरा है, देख ये मेरे साथ दूर तक चलेगा, तेरा तो छोटा सा खेत था, तेरा खेत पीछे जल्दी चला गया, आदि कह कर अपने अपने बालपन में मस्त थे। रामलाल बड़ी देर से अपने बच्चो की क्रीड़ा देखे जा रहे थे, उन्हें उस दिन अपने बच्चो पर बड़ा प्यार आ रहा था। रामलाल का सबसे छोटा बेटा अपने पिता को अपनी ओर एकटक देखते पाकर खिड़की छोड़ उनकी ओर आ गया, शायद खिड़की के पास खड़ा-खड़ा, खिड़की को अपने दोनों नन्हे हाथो से पकड़ उपर की ओर लपक-लपक कर बाहर देखने की कोशिश करता हुआ थक गया था। रामलाल ने भी अपने बेटे को दोनों हाथ फैलाकर अपनी गोद में बैठा लिया, गोद में लेकर अपने सीने से भींच लिया। रामलाल के दिल में उस दिन अपने सब बच्चो के लिए प्यार उमड़ पड़ा था, उनके दिल ने उन्हें जोर जोर से ये कहने लगा की अपने सब बच्चो को एक साथ अपने गले से लगा कर बच्चो के साथ किया गया हर एक जुल्म के लिए बच्चो के सीने में बसने वाले भगवान से माफ़ी मांगे I अपने छोटे बेटे को सीने से लगाकर उन्हें उस दिन पितृत्व का एहसास हुआ, उन्हें उस दिन उस बस के सफर में अपने बच्चो के लिए मातृत्व और माँ की ममता का आभास हुआ, रामलाल को उन्ही पलो में बच्चो के लिए माँ और पिता के ममता, प्यार के महत्व का मोल समझ आया।

रामलाल के अक्सर नशे में रहते देख बच्चे बिन बुलाय उनके पास नहीं जाते थे, वो सब एक दुसरे के साथ खेलते रहते, या फिर बिन माँ के बच्चे घर, आँगन, दरवाजे पर कही भी उदास बैठे रहते। खाना खाया की नहीं खाया, उनको बाथरूम जाना फिर आना, बड़ी बहन सामने रहती तो देख लेती वर्ना घण्टो ऐसे ही घुमते। रामलाल को ये सब सोच कर, अपने बच्चो के प्रति लापरवाही बरतने का अहसास कर, उन्हें अपने आप से बड़ी घृणा हुई। उनका गला रुंधता चला गया उन्होंने उसी वक्त चाहा की अपने सब बच्चो को एक साथ अपने सीने से लगाकर फुट-फुट कर रोय। रामलाल के दिल में उस दिन अपने बच्चो के लिए मोह, ममता, स्नेह प्यार सब एक साथ हिलोरे मारने लगे।

तन मन से नास्तिक रामलाल को अब बच्चो के मन में बसने वाले भगवान के साक्षात् दर्शन होने लगे, उनका मन कहे लगा की अपने बच्चो से नशे में किय गय हर एक गलतियो की माफी माँगे पर ऐसा वहाँ मुमकिन नहीं था। रामलाल के दिलो दिमाग में एकाएक छाए ममता ने उन्हें बार-बार धिक्कारना शुरू कर दिया, इससे रामलाल को अपने आप से, अपने बच्चो के प्रति जिम्मेदारियो को लेकर आत्म चिंतन करने लगे। सुनैना के गाँव के पास लगभग पहुँच चुके रामलाल अब और आगे नहीं जाना चाहते थे, उन्होंने वही से वापस होकर खुद ही अपने बच्चो के लालन-पालन के लिए ढृढ निश्चय करने लगे। रामलाल अपने मनो मस्तिष्क में आए बदलाव के लिए अन्तः करण से ईश्वर का बार-बार धन्यवाद करने लगे, इन्ही छणो में ये एहसास हुआ की ईश्वर जो भी करते है अच्छा ही करते है बुरा नहीं। उन्ही क्षणीक मात्र पलो में उन्हें ये ज्ञात हुआ की ये बदलाव मुझमे अपने बच्चो को अचानक आज मिले इतने सारे खुशियों के बदौलत आए है, उन्हें ये जुमला भी सच साबित होता लगा की बच्चो के स्वक्ष मन के खुशियों के कारण ही उनमे प्रमेश्वर का वास होता है। और उस प्रमेश्वर के प्रति विश्वास बढ़ा तो रामलाल को सुनैना का किय गया अपमान अपने दिल पर बहुत बड़ा बोझ लगने लगा, और उस बोझ से दबते चले जा रहे रामलाल किसी भी किमत पर एक बार सनैना से मिलकर उबर जाना चाहते थे।

मैं इस बोझ से, इस पाप से कभी भी इस जन्म में उबर तो नहीं पाउँगा, फिर भी कुछ भी हो मैं आज जब घर से सुनैना से मिलने के लिए निकला ही हुँ, तो मिल के ही रहुँगा। अपने आप से निश्चय कर रामलाल बच्चो के सर डाले अपने जिल्लतो का पिटारा मन ही मन अपने सर वापस लेते हुए बड़बड़ाने से लगे- तुम कुछ भी कहो, कुछ भी करो सुनैना मैं तुम्हारा गुनाहगार हुँ, सब कुछ बर्दाश्त करूँगा, तुम्हारी मन की निकलती भड़ास से शायद मेरे पापो का बोझ कुछ कम हो जाए। अपने आप में बड़बड़ाते हुए रामलाल अब जल्दी से जल्दी सुनैना के घर पहुँचना चाहते थे। बस की खिड़की से बाहर का जायजा लेने के लिए रामलाल ने जैसे ही अपने सर को खिड़की के पास झुकाया तो उन्हें अपनी बस खड़ी मिली। अरे ये बस यहाँ क्युँ खड़ी है? ये कब पहुँचाएगा हमे ? ये  सोच कर और इस बाबत जानने को उत्सुक निगाहे बस के कण्डक्टर को टटोलती जब कण्डक्टर पर जा पड़ी, तो कण्डक्टर यात्रियो को उनकी मंजिल पर उतारता हुआ रामलाल को भी उतरने का इशारा करता जा रहा था I पर बजार में होते सोरग़ुल, यात्रियो के उतरने समान उतारने के उथल पुथल, और रामलाल के खुद में ही मसगुल रहने से कण्डक्टर का इशारा अभी तक रामलाल को को समझ नहीं आ सका था। रामलाल की निगाहे जैसे ही कण्डक्टर पर पड़ी झट खड़े हुए, उनके पास समान तो था नहीं अपने बच्चो को साथ लिए बस से निचे उतर गय।

बाजार में मेले की धुम थी हर दुकानो में रौनक थी, दुकानो के बाहर बाँसों पर टंगे लाउडस्पीकरो पर जोर-जोर से गाने बज रहे थे, बच्चे बूढ़े किशोर लड़के, लडकिया, औरते हर कोई उस रोज एक दुसरे से सुन्दर और अच्छा दिखने की कोशिश में रंग-बिरंगे कपड़ो में नजर आ रहा था। रामलाल के सब बच्चो का मन मेले की रंग बिरंग मिजाज देख पुलकित हो उठा, वो भी आपस में अपने-अपने कपड़ो को देखने लगे। अपने कपड़ो को लेकर उनका मन उदास तो हुआ पर किसी ने किसी से कुछ कहा नहीं, जिससे कह पाते मारे डर के कुछ नहीं कह सके चुप चाप ही रहे। अपने बच्चो के प्रति अभी-अभी सचेत हुए रामलाल, बच्चो के चेहरे के हाव-भाव से उनके कोमल मन को टटोल गय।

रामलाल ने पहले बच्चो को मिठाई की दुकान से उनकी पसंद की मिठाइयाँ दिलाया, कपडे की दुकान से उनकी पसंद की नय कपडे खरीदे सबके लिए जूते चप्पल लिए, एक थैला लिया उसमे बच्चो के उतारे पुराने कपडे भर लिया और अपनी पीठ की ओर लटका कर बोले- चलो मेला घुमते हैI हाँ! पापा! चलो सब एक साथ चहक कर बोले। रामलाल उन्हें कुछ हिदायते देते हुए बोले सब एक साथ ही रहना, छोटे बेटे को गोद में उठते हुए कहा - हाथ पकड़कर चलना छोड़ना नहीं- ठीक है, सबने अपना सर ऊपर निचे हिलाते हुए उनके आज्ञा का पालन किया। रामलाल मेला घुमकर मेले से बाहर निकले और चल पड़े अपनी मंजिल की ओर।

शाम के करीब 5-6 के बीच का समय हो रहा होगा जब रामलाल सुनैना के घर पहुँचे। घर के बाहर चापाकल के पास बैठक्के पर कई लोग बैठे थे, सब अपने मेले के अनुभवो को आपस में बाँटे जा रहे थे, कोई किसी मुर्ती की तारीफ कर रहा था तो, कोई किसी दुकान के खाय मिठाईयाँ और पकौड़ो की। उनके आस-पास बच्चो का भी शोर गुल हो रहा था, बच्चे भी मेले में लिए बाँसुरी, पिपहिरी (सीटियाँ) बजा-बजा मानो उनके सुर में धुन मिला रहे हो। रामलाल बच्चो के साथ उस बैठक्के के पास पहुँचे, वहाँ बैठे लोग रामलाल को अपनी ओर आते (रामलाल के कुछ बोलने से पहले) एक नवयुवक ने उनसे पुछ डाला- किस से मिलना है? कहाँ से आए है आप ? आप कौन गाँव से आये है ? मैं रामलाल हुँ, अपने गाँव का नाम बताते हुए मैं -------- का रहने वाला हुँ। और मैं नन्हकू राम जी के घर के लोगो से मिलना चाहता हूँ। रामलाल से उनका परिचय लेने वाला युवक अपनी जगह से उठा, रामलाल की ओर आकर उनके चेहरे को गौर से देखते हुए बोला- नमस्ते पहुना, पास पड़े चारपाई की ओर इशारा करते हुए आइए बैठिए। नवयुवक रामलाल को पहचान गया लेकिन रामलाल अभी तक उसे पहचान नहीं पाए थे, जब रामलाल ने उसे देखा था तब वो छोटा था। रामलाल अपने आप को पहुना सम्बोधन से आसवस्त हो गय थे की ये जरूर सुनैना के परिवार से ही है।

रामलाल और बच्चे चारपाई पर बैठ गय युवक वहाँ से घर चला गया। रामलाल की बड़ी बेटी उनके पास आती हुई दबे लब्जो में बोली ये कौन सी जगह है ? मामा का गाँव है- दबी आवाज़ में ही उन्होंने जवाब भी दिया, फिर वो वहाँ बैठे लोगो की ओर मुखातिब हो उन लोगो को पहचाने की नाकाम कोशिश करने लगे। हाथ में एक प्लेट एक लोटा लिए हुए वो युवक वापस आया और बच्चो के बीच प्लेट रखते हुए बोला -लो जलपान करो ! और वापस फिर घर की ओर चला गया, बच्चो के साथ रामलाल ने भी प्लेट से एक बताशा उठाया और पानी पिया। वहाँ बैठे लोगो में कानाफूसी सी होने लगी रामलाल उनकी सायं-सायं की बातो को सुनने की कोशिश करने लगे पर कामयाब नहीं हुए। लोग धीरे-धीरे एक-एक कर उठ कर चले गय, वहाँ चारपाई पर सिर्फ रामलाल और उनके बच्चे रह गय।

रामलाल की आवभगत करने वाला युवक सुनैना का सबसे छोटा भाई लक्ष्मन था दसवी की पढाई कर रहा था, इसके बड़े भाई राम की शादी हो गई थी लेकिन गौना होना बाकि था राम किसी काम से दूसरे गाँव गया हुआ था। आँगन में दिए की टिमटिमाती रोशनी में सुनैना पैरो में दबे हसिये से सब्जी तरास रही थी लक्ष्मन सुनैना के पास बैठते हुए बाहर का समाचार सुनाने लगा, रामलाल के बारे में सुन कर सुनैना पर कोई खास असर नहीं हुआ। जैसे वो इस अचानक घटने वाले घटना के बारे में पहले से ही जानती हो सुनैना सरल भाव में ही सब्जी तरसती हुई बोली- अच्छा तभी जल्दी जल्दी पानी लेकर जा रहा था पूछा तो आ कर बताता हूँ कह दिया, ठीक है जा दूकान से थोड़ा दाल खरीद ला - अच्छा दीदी कह युवक उठ कर चला गया।

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