मेरे इस शिर्षक से मैंने मन ही मन मसहूर हो जाना चाहा पर कही इसका उल्टा न हो जाय मैं फिर ये सोच कर अन्नदर तक हिल गया और इस सोच में पड़ गया की, मुझ से ही मेरा अपने वाला राज्य न छीन जाय............ ।
वजह की शुरुआत अपने आप कहता हुँ, मेरा नाम रमेश सक्सेना है, बाई बहनो में मंझला होने के कारण मानसिक परवरिश भी मंजोलेपन में हुई । किशोरावस्था मेरे समझ से 15-16 के बीच ही मन किसी का हो चला युँ भी कह सकते है, कुछ जल्दी ही किसी के प्रेम में फिसल गया, फिर क्या था मेरे वो जोश भरे और आत्मविश्वास से लबरेज डायलाग निकलने लगे जिसे सुन दिलीप कुमार और धमेन्द्र जी को भी सोचते पड़ जाय।मस्त मगन प्यार में मैं तो अपने आप को मात्र मंजन समझ बैठा। घर के सभी बड़े-बुजुर्ग तो मुझे अब प्यार में अड़चने पैदा करने वाले रबल नायक लगने लगे। और इस जंग ने मुझे सबके बाँस और मेरे पिता जी से सामना करना पड़ा, एक जोर के संझनाहर के साथ ही मेरा बाया हाथ मेरे कान के बाय साइड वाले कान पर जा टीका।सामने खड़े पिता जी को अपना हाथ सहलाते हुए देख कुछ समझ आया की उन्होंने मुझे ज्यादा नहीं एक करारा तमाचा रसीद किया है। खैर जो भी है मेरे पिता जी है इनका तो फर्जे है,मैं विचारा अपने पिता जी और माता जी की परिभाषाओ में उच्च कोटि का परिभाषा अपने दिमाग गुराल की गति से सर्च कर ही रहा था की मेरे दूसरे साइड के कान अपना काम दिया और एक कड़क आवाज़ सुनाई दिया बिना उसके --------। किसके --------। मैं सोच पाता की ---- शादी नहीं करेगा जिंदगी भर तो मत कर घर में बड़ा ( सुंवा ) रहना चाहिए नाम चटाने वाले बहुत है। मैंने भी अब अपने परिवार के किसी भी सदस्य से अपने प्रेम मय विचारो को आदान-प्रदान करना छोड़ दिया, और जब विचार ही दिल के सीने में गरजते धड़कनो में सिमर गय तो हस्तक्षेप का शवाल ही नहीं पैदा नहीं होता। मैं तो नाजुक उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच कर भी अपने आप को कमजोर समझने लगा, और अपनी एक अलग ही दुनिया बसा ली। जिसमे सिर्फ मैं और मेरा प्यारा प्यारा सामिल रहता एक दूसरे घण्टो बाते करता रहता, अपने आप को रूठता रहता तो अपने आप को ही मनाता रहता। कभी मै मैं तो कभी मैं ही मेरा प्यार वन बैठता। मेरे अपने ही घर में मेरी गुमशुदगी की खबर पा कर मेरे परिवार के सभी आत्मज्ञानो- आहे च.च.च. के साथ अनेको ऐसे मानसिक सहयोग कभी कभार मिल जाया करते जिसका मुझे अति ही आवश्यकता हुआ करती थी उन दिनों। एक दिन पिता जी ने
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